नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर किसी व्यक्ति को संपत्ति के अधिकार से वंचित करने से पहले उचित प्रक्रिया स्थापित नहीं की गई या उसका पालन नहीं किया गया तो निजी संपत्तियों का अनिवार्य अधिग्रहण असंवैधानिक होगा। एक महत्वपूर्ण फैसले में, शीर्ष अदालत ने कहा कि यदि राज्य और उसके साधनों द्वारा उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता है तो प्राइवेट प्रॉपर्टी के अधिग्रहण के बदले मुआवजे के भुगतान की वैधानिक योजना भी उचित नहीं होगी। जस्टिस पी. एस. नरसिम्हा और जस्टिस अरविंद कुमार की बेंच ने यह टिप्पणी करते हुए कोलकाता नगर निगम की अपील खारिज कर दी।
हाई कोर्ट ने संपत्ति के अधिग्रहण को रद्द कर दिया था
कोलकाता नगर निगम ने कलकत्ता हाई कोर्ट की एक बेंच के फैसले को चुनौती देते हुए शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था। हाई कोर्ट ने एक पार्क के निर्माण के लिए शहर के नारकेलडांगा नॉर्थ रोड पर एक संपत्ति के अधिग्रहण को रद्द कर दिया था। हाई कोर्ट ने माना था कि नगर निकाय के पास अनिवार्य अधिग्रहण के लिए एक विशिष्ट प्रावधान के तहत कोई शक्ति नहीं थी। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा, ‘हमारी सुविचारित राय है कि उच्च न्यायालय द्वारा रिट याचिका को अनुमति देना और अधिनियम की धारा 352 के तहत अपीलकर्ता-निगम द्वारा भूमि अधिग्रहण के मामले को खारिज करना पूरी तरह से उचित था। आक्षेपित निर्णय किसी भी तरह से हस्तक्षेप योग्य नहीं है।’
‘मुआवजे के प्रावधानों पर दिया जाता है अनुचित जोर’
जस्टिस नरसिम्हा ने 32 पन्नों के फैसले में कहा, ‘हमारी संवैधानिक योजना के तहत, किसी भी व्यक्ति को उसकी अचल संपत्ति से वंचित करने से पहले कानून की निष्पक्ष प्रक्रिया का अनुपालन करना अच्छी तरह से स्थापित है। यह मानते हुए कि कोलकाता नगर निगम अधिनियम की धारा 363 मुआवजे का प्रावधान करती है, तब भी अनिवार्य अधिग्रहण असंवैधानिक होगा यदि किसी व्यक्ति को संपत्ति के अधिकार से वंचित करने से पहले उचित प्रक्रिया स्थापित नहीं की जाती है या उसका पालन नहीं किया जाता है।’ इसमें कहा गया है कि अनिवार्य अधिग्रहण की शक्ति को उचित ठहराने के लिए मुआवजे के प्रावधानों पर अनुचित जोर दिया जाता है, जैसे कि मुआवजा ही वैध अधिग्रहण की पूरी प्रक्रिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में और क्या कहा?
संविधान का अनुच्छेद 300ए (संपत्ति का अधिकार) कहता है कि ‘कानून के अधिकार के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा’ और इसे संवैधानिक और मानव अधिकार दोनों के रूप में वर्णित किया गया है। बेंच ने कहा, ‘यह मान लेना कि संवैधानिक संरक्षण उचित मुआवजे के अधिदेश तक ही सीमित हो जाता है, पाठ की एक कपटपूर्ण व्याख्या होगी और, हम कहेंगे, संविधान की समतावादी भावना के लिए अपमानजनक होगा।’